हम हो चुके हैं आदतन गुलाम कान से

हम हो चुके हैं आदतन गुलाम कान से
सुन सुन के सरासर हुकुम तमाम कान से

आँखों से अपाहिज हैं न जेहन से हैं लाचार
फिर भी क्यों लेते हैं सिर्फ काम कान से

कौन जाने किसने उसके कान भर दिये
वो सुनना भी न चाहे मेरा नाम कान से

हकीकतों से वास्ता किसी को कुछ नहीं
हर इंकलाब मुँह से इंतजाम कान से

काबू में करने के लिए हमारे जेहन को
डाली गई अल्फाजों की लगाम कान से

कानों को पिरो देते हैं अफवाहों के धागे
जुड़ जाते हैं राकि़म जी खासोआम कान से