कई पुश्तें हुईं हम गाँव अपने घर नहीं लौटे

कमाने पुरखे जो निकले थे वो अक्सर नहीं लौटे
कई पुश्तें हुईं हम गाँव अपने घर नहीं लौटे

हुए पैवस्त इस दर्जा हमारी पीठ में गहरे
गिरेबाँ में कभी वापस तेरे खंजर नहीं लौटे

गरीबों के कटे पेटों पे आँखें हैं मुनाफे की
जो इनकी जद में आ जाये कभी बचकर नहीं लौटे

किया है अपने सर को सामने ये सोचकर हमनें
जो तूने फेंका है वो रायगां पत्थर नहीं लौटे

पहुँच आये हैं खेतों तक इमारत के घनें जंगल
मुखालिफ गाँव था फिर भी शहर मुडकर नहीं लौटे

वो जिसके वास्ते मंदिर गये मस्जिद गये राकि़म
वो दिल में रहता था हम ही कभी अंदर नहीं लौटे